अमोघ कवच
अमोघ शिव कवच एक अत्यंत प्रभावशाली वैदिक स्तोत्र है, जिसे भगवान शिव की दिव्य कृपा और सुरक्षा प्राप्त करने के लिए पढ़ा जाता है। इसका पाठ साधक को तांत्रिक बाधाओं, ग्रह दोषों, नकारात्मक ऊर्जा, भय और मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाता है। इसे नियमित रूप से पढ़ने से आत्मबल, साहस और आध्यात्मिक चेतना में वृद्धि होती है। यह स्तोत्र “स्वयं सिद्ध” माना जाता है—अर्थात् इसका प्रभाव पहले ही पाठ से अनुभव किया जा सकता है। इसे कोई भी श्रद्धालु—चाहे वह स्त्री हो, पुरुष हो, विद्यार्थी हो या गृहस्थ—भक्ति भाव से पढ़ सकता है।
| विनियोगः |
अस्य श्री-शिव-कवच-स्तोत्र-मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीसदाशिव-रुद्रो देवता, ह्रीं शक्तिः, वं कीलकम्, श्रीं ह्रीं क्लीं बीजम्, सदाशिव-प्रीत्यर्थे शिवकवच-स्तोत्र-जपे विनियोगः ॥
| ऋष्यादिन्यासः |
ॐ ब्रह्मर्षये नमः, शिरसि।
अनुष्टुप् छन्दसे नमः, मुखे।
श्रीसदाशिव-रुद्रदेवतायै नमः, हृदि।
ह्रीं शक्तये नमः, पादयोः।
वं कीलकाय नमः, नाभौ।
श्रीं ह्रीं क्लीमिति बीजाय नमः, गुह्ये।
विनियोगाय नमः, सर्वांगे।
| अथ करन्यासः |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ ह्रीं रां सर्वशक्ति-धाम्ने ईशानात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ नं रीं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ मं रूं अनादि-शक्ति-धाम्ने अघोरात्मने मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ शिं रैं स्वतन्त्र-शक्ति-धाम्ने वाम-देवात्मने अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्योजातात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने कर-तल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
| हृदयादि अंगन्यास |
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ ह्रीं रां सर्व-शक्ति-धाम्ने ईशानात्मने हृदयाय नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ नं रीं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने शिरसे स्वाहा।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ मं रूं अनादि-शक्ति-धाम्ने अघोरात्मने शिखायै वषट्।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ शिं रैं स्वतन्त्र-शक्ति-धाम्ने वामदेवात्मने कवचाय हुम्।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्यो-जातात्मने नेत्र-त्रायाय वौषट्।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने
ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट्।
| अथ ध्यानम् |
वज्र-दंष्द्रं त्रिनयनं काल-कण्ठम-रिंदमम् ।
सहस्रकर-मप्युग्रं वन्दे शम्भुं-उमापतिम् ॥
| ऋषभ उवाच |
अथापरं सर्व-पुराण-गुह्यं निःशेष-पापौघ-हरं पवित्रम् ।
जयप्रदं सर्व-विपद्विमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते ॥
नमस्कृत्य महादेवं विश्व-व्यापिन-मीश्वरम् ।
वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्व-रक्षाकरं नृणाम् ॥1॥
शुचौ देशे समासीनो यथा-वत्कल्पिता-सनः।
जितेन्द्रियो जित-प्राणश्चिन्तयेच्-छिव-मव्ययम् ॥2॥
हृत्पुण्डरी-कान्तरसन्निविष्टं स्वतेजसा व्याप्तनभो-ऽवकाशम् ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्म-मनन्त-माद्यं ध्यायेत् परानन्द-मयं महेशम् ॥3॥
ध्याना-वधूताखिल-कर्म-बन्धश्-चिरं चिदानन्दनि-मग्नचेताः ।
षडक्षरन्यास-समाहित-आत्मा शैवेन कुर्यात् कवचेन रक्षाम् ॥4॥
| मूल कवच पाठ |
मां पातु देवो-ऽखिल-देवतात्मा संसारकूपे पतितं गभीरे ।
तन्नाम दिव्यं वरमन्त्र-मूलं धुनोतु मे सर्वमघं हृदिस्थम् ॥5॥
सर्वत्र मां रक्षतु विश्वमूर्तिर्-ज्योतिर्मयानन्द-घनश्चिदात्मा ।
अणो-रणी-या-नुरुशक्ति-रेकः स ईश्वरः पातु भयाद-शेषात् ॥6॥
यो भूस्वरूपेण बिभर्ति विश्वं पायात् स भूमेर्गिरिशो-ऽष्टमूर्तिः ।
योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति संजीवनं सोऽवतु मां जलेभ्यः ॥7॥
कल्पा-वसाने भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यो नृत्यति भूरिलीलः ।
स कालरुद्रोऽवतु मां दवाग्नेर्-वात्यादि-भीतेर-खिलाच्च तापात् ॥8॥
प्रदीप्त-विद्युत्-कनकावभासो विद्या-वरा-भीति-कुठार-पाणिः ।
चतुर्मुखस्तत्पुरुष-स्त्रिनेत्रः प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्रम् ॥9॥
कुठार-वेदांकुश-पाशशूल-कपाल-ढक्काक्ष-गुणान् दधानः ।
चतुर्मुखो नील-रुचि-स्त्रिनेत्रः पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥10॥
कुन्देन्दुशंख-स्फटिका-वभासो वेदाक्षमाला-वरदाभयांकः ।
त्र्यक्षश्चतुर्वक्त्र उरुप्रभावः सद्यो-ऽधिजातो-ऽवतु मां प्रतीच्याम् ॥11॥
वराक्षमाला-भयटंक-हस्तः सरोज-किञ्जल्क-समानवर्णः ।
त्रिलोचनश्चारु-चतुर्मुखो मां पाया-दुदीच्यां दिशि वामदेवः ॥12॥
वेदाभ्येष्टांकुश-पाश-टंक-कपाल-ढक्काक्षक-शूलपाणि: ।
सितद्युति: पंचमुखो-ऽवतान्म-आमीशान ऊर्ध्वं परमप्रकाश: ॥13॥
मूर्द्धान-मव्यान्-मम चंद्रमौलिर् भालं ममाव्यादथ भालनेत्र: ।
नेत्रे ममाव्याद् भगनेत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्वनाथ: ॥14॥
पायाच्छ्रुती मे श्रुतिगीतकीर्ति: कपोलमव्यात् सततं कपाली ।
वक्त्रं सदा रक्षतु पंचवक्त्रो जिह्वां सदा रक्षतु वेदजिह्व: ॥15॥
कण्ठं गिरीशोऽवतु नीलकण्ठ: पाणिद्वयं पातु पिनाकपाणि: ।
दोर्मूल-मव्यान्मम धर्मबाहुर्-वक्ष:स्थलं दक्ष-मखान्तकोऽव्यात् ॥16॥
ममोदरं पातु गिरींद्रधन्वा मध्यं ममाव्यान्-मदनांतकारी ।
हेरम्बतातो मम पातु नाभिं पायात्कटि धूर्जटिरीश्वरो मे ॥17॥
ऊरुद्वयं पातु कुबेरमित्रो जानुद्वयं मे जगदीश्वरो-ऽव्यात् ।
जंघायुगं पुंग-वकेतु-रव्यात् पादौ ममाव्यत् सुर-वंद्यपाद: ॥18॥
महेश्वर: पातु दिनादियामे मां मध्य-यामेऽवतु वामदेव:।
त्र्यम्बकः पातु तृतीय-यामे वृषध्वज: पातु दिनांत्य-यामे ॥19॥
पायान्नि-शादौ शशि-शेखरो-मां गंगाधरो रक्षतु मां निशीथे।
गौरीपति: पातु निशा-वसाने मृत्युञ्जयो रक्षतु सर्वकालम् ॥20॥
अन्त: स्थितं रक्षतु शंकरो मां स्थाणु: सदा पातु बहि: स्थितम् माम् ।
तदंतरे पातु पति: पशूनां सदाशिवो रक्षतु मां समन्तात् ॥21॥
तिष्ठन्त-मव्याद्-भुवनैक-नाथ: पायाद् व्रजन्तं प्रमथाधिनाथ: ।
वेदांत-वेद्यो-ऽवतु मां निषण्णं मामव्यय: पातु शिव: शयानम् ॥22॥
मार्गेषु मां रक्षतु नीलकण्ठ: शैलादि-दुर्गेषु पुरत्रयारि: ।
अरण्य-वासादि-महाप्रवासे पायान्मृगव्याध उदारशक्ति: ॥23॥
कल्पांत-काटोप-पटुप्रकोपः स्फुटाट्-टहासोच्-चलिताण्डकोश: ।
घोरारि-सेनार्ण-वदुर्निवार-महाभयाद् रक्षतु वीरभद्र: ॥24॥
पत्त्यश्व-मातंग-घटा-वरूथ-सहस्र-लक्षायुत-कोटि-भीषणम् ।
अक्षौहिणीनां शत-मात-तायिनां छिंद्यान्मृडो घोर-कुठार-धारया ॥25॥
निहंतु दस्यून् प्रलयान-लार्चिर्-ज्वलत त्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य ।
शार्दूल-सिंहर्क्ष-वृकादि-हिंस्रान् संत्रास-यत्वीशधनु: पिनाकं ॥26॥
दु:स्वप्न-दुश्शकुन-दुर्गति-दौर्मनस्य-दुर्भिक्ष-दुर्व्यसन-दुस्सह-दुर्यशांसि ।
उत्पात-ताप-विषभीतिमसद्-ग्रहार्ति व्याधींश्च नाशयतु मे जगतामधीश: ॥27॥
॥ मूल कवच समाप्त ॥
॥ मंत्र ॥
ॐ नमो भगवते सदाशिवाय सकल-तत्त्व-आत्मकाय सकल-तत्त्व-विहाराय सकल-लोकै-कर्त्रे सकल-लोकैक-भर्त्रे सकल-लोकैक-हर्त्रे सकल-लोकैक-गुरवे सकल-लोकैकसाक्षिणे सकल-निगम-गुह्याय सकल-वर-प्रदाय सकल-दुरि-तार्ति-भञ्जनाय सकल-जगद-भयंकराय सकल-लोकैक-शंकराय शशांक-शेखराय शाश्वत-निजाभासाय निर्गुणाय निरूपमाय निरूपाय निरा-भासाय निरामयाय निष्प्रपञ्चाय निष्कलंकाय निर्द्वन्द्वाय निस्संगाय निर्मलाय निर्गमाय नित्य-रूप-विभवाय निरुपम-विभवाय निराधाराय नित्य-शुद्ध-बुद्ध-परिपूर्ण-सच्चिदानन्दाद्वयाय परम-शान्त-प्रकाश-तेजो-रूपाय
जय जय महारुद्र महारौद्र भद्रावतार दुःखदावदारण महाभैरव कालभैरव कल्पान्तभैरव कपाल-मालाधर खट्वांग-खड्ग-चर्म-पाशांकुश-डमरु-शूल-चापबाण-गदा-शक्ति-भिन्दिपाल-तोमर-मुसल-मुद्गर-पट्टिश-परशु-परिघ-भुशुण्डी-शतघ्नी-चक्राद्य-आयुध-भीषणकर सहस्र-मुख दंष्ट्रा-कराल विकट-आट्टहास-विस्फारित-ब्रह्माण्ड-मण्डल-नागेन्द्र-कुण्डल नागेन्द्रहार नागेन्द्रवलय नागेन्द्रचर्मधर मृत्युञ्जय त्रयम्बक त्रिपुरान्तक विरूपाक्ष विश्वेश्वर विश्वरूप वृषभवाहन विषभूषण विश्वतोमुख सर्वतो रक्ष रक्ष मां ज्वल ज्वल महामृत्यु-भयमपमृत्यु-भयं नाशय नाशय रोग-भयम-उत्सादयोत्-सादय विष-सर्प-भयं शमय शमय चोरभयं मारय मारय
मम शत्रून-उच्चाटय-ओच्चाटय शूलेन विदारय विदारय कुठारेण भिन्धि भिन्धि खंगेन छिन्धि छिन्धि खट्वांगेन विपोथय विपोथय मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय बाणैः संताडय संताडय रक्षांसि भीषय भीषय भूतानि विद्रावय विद्रावय कूष्माण्ड-वेताल-मारीगण-ब्रह्मराक्षसान् संत्रासय संत्रासय मामभयं कुरु कुरु वित्रस्तं माम-आश्वासय-आश्वासय नरक-भयान्मामुद्धारय-ओद्धारय संजीवय संजीवय क्षुत्तृड्भ्यां माम-आप्यायय-आप्यायय दुःखातुरं माम-आनन्दय-आनन्दय शिवकवचेन माम-आच्छादय-आच्छादय त्रयम्बक सदाशिव नमस्ते नमस्ते नमस्ते।
| ऋषभ उवाच |
इत्ये-तत्कवचं शैवं वरदं व्याहृतं मया ।
सर्व-बाधा-प्रशमनं रहस्यं सर्व-देहिनाम् ॥28॥
य: सदा धारयेन्मर्त्य: शैवं कवचमुत्तमम् ।
न तस्य जायते क्वापि भयं शंभो-रनु-ग्रहात् ॥29॥
क्षीणायुर्-मृत्यु-मापन्नो महारोग-हतोऽपि वा ।
सद्य: सुखम-वाप्नोति दीर्घ-मायुश्च विंदति ॥30॥
सर्व-दारिद्र्य-शमनं सौमंगल्य-विवर्धनम् ।
यो धत्ते कवचं शैवं स देवैरपि पूज्यते ॥31॥
महापातक-संघातैर्मुच्यते चोपपातकै: ।
देहांते शिवमाप्नोति शिव-वर्मानुभावत: ॥32॥
त्वमपि श्रद्धया वत्स शैवं कवचमुत्तमम् ।
धारयस्व मया दत्तं सद्य: श्रेयो ह्यवाप्स्यसि ॥33॥
| सूत उवाच |
इत्युक्त्वा ऋषभो योगी तस्मै पार्थिवसूनवे ।
ददौ शंखं महारावं खड्गं चारि-निषूदनम् ॥34॥
पुनश्च भस्म संमंत्र्य तदंगं सर्वतोऽस्पृशत् ।
गजानां षट्सहस्रस्य द्विगुणं च बलं ददौ ॥35॥
भस्म-प्रभावात्संप्राप्य बलैश्वर्य-धृति-स्मृतीः ।
स राजपुत्रः शुशुभे शरदर्क इव श्रिया ॥36॥
तमाह प्रांजलिं भूयः स योगी राजनंदनम् ।
एष खड्गो मया दत्त-स्तपो-मंत्रानुभावतः ॥37॥
शितधारमिमं खड्गं यस्मै दर्शयसि स्फुटम् ।
स सद्यो म्रियते शत्रुः साक्षान्मृत्युरपि स्वयम् ॥38॥
अस्य शंखस्य निह्रादं ये शृण्वंति तवाहिताः ।
ते मूर्च्छिताः पतिष्यंति न्यस्त-शस्त्रा विचेतना ॥39॥
खड्ग-शंखाविमौ दिव्यौ परसैन्य-विनाशिनौ ।
आत्म-सैन्य-स्वपक्षाणां शौर्य-तेजो-विवर्धनौ ॥3.3.12.40॥
एतयोश्च प्रभावेन शैवेन कवचेन च ।
द्विषट्-सहस्त्र-नागानां बलेन महतापि च ॥41॥
भस्म-धारण-सामर्थ्याच्छ-त्रुसैन्यं विजेष्यसि ।
प्राप्य सिंहासनं पैत्र्यं गोप्तासि पृथिवी-मिमाम् ॥42॥
इति भद्रायुषं सम्यगनु-शास्य समातृकम् ।
ताभ्यां संपूजितः सोऽथ योगी स्वैर-गतिर्ययौ ॥43॥
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां तृतीये ब्रह्मोत्तर खंडे सीमंति-नीमाहात्म्ये भद्रायू-पाख्याने शिवकवच-कथनं नाम द्वादशो-ऽध्यायः ॥
अमोघ शिव कवच पढ़ने का सर्वोत्तम समय क्या है?
इस स्तोत्र का पाठ प्रातःकाल स्नान के पश्चात् शुद्ध वस्त्र धारण कर शांत वातावरण में करना श्रेष्ठ माना जाता है। विशेष रूप से सोमवार, महाशिवरात्रि, प्रदोष व्रत, या किसी भी शुभ तिथि पर इसका पाठ अत्यंत फलदायी होता है। यदि संभव हो, तो इसे शिव मंदिर में या शिवलिंग के समक्ष बैठकर पढ़ना अधिक प्रभावशाली होता है।
अमोघ शिव कवच कौन-कौन पढ़ सकता है?
यह स्तोत्र सभी श्रद्धालु व्यक्तियों के लिए उपयुक्त है—चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, विद्यार्थी हो या गृहस्थ। इसके पाठ के लिए किसी विशेष अनुष्ठान, दीक्षा या जातिगत शर्त की आवश्यकता नहीं होती; केवल शुद्ध मन और भक्ति भाव आवश्यक है।
बीज मंत्र
- ॐ ह्रीं
- ॐ ह्लीं
- ॐ लूं
- ॐ अः
- ॐ एं
- ॐ ऐं
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
प्रश्न 1: अमोघ शिव कवच क्या है?
उत्तर: यह भगवान शिव की कृपा और सुरक्षा प्राप्त करने वाला शक्तिशाली वैदिक स्तोत्र है।
प्रश्न 2: अमोघ शिव कवच का पाठ कब करना चाहिए?
उत्तर: इसका पाठ सुबह स्नान के बाद, विशेष रूप से सोमवार या शिवरात्रि पर करना शुभ होता है।
प्रश्न 3: क्या कोई भी व्यक्ति अमोघ शिव कवच पढ़ सकता है?
उत्तर: हां, स्त्री-पुरुष, विद्यार्थी या गृहस्थ—कोई भी श्रद्धा से इसका पाठ कर सकता है।
प्रश्न 4: अमोघ शिव कवच में कौन से बीज मंत्र आते हैं?
उत्तर: इसमें “ॐ ह्रीं”, “ॐ लूं”, “ॐ ह्लीं”, “ॐ ऐं”, “ॐ अः” जैसे शक्तिशाली बीज मंत्र होते हैं।
प्रश्न 5: क्या इसे मोबाइल या PDF से पढ़ना ठीक है?
उत्तर: हां, श्रद्धा हो तो आप इसे मोबाइल या PDF से भी पढ़ सकते हैं।
प्रश्न 6: क्या पाठ के साथ कोई विशेष पूजा करनी होती है?
उत्तर: दीपक जलाकर और शिवलिंग का ध्यान करते हुए पढ़ना अधिक फलदायी होता है, पर अनिवार्य नहीं।